रोमांस जिनका ओढ़ना-बिछौना था ...

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रेहान फजल
निसार अख्तर एक बोहेमियन शायर थे. अगर यह कहा जाए कि तरक्कीपसंद शायरी के स्तंभ कहे जाने के बावजूद वो बुनियादी तौर पर एक रूमानी लहजे के शायर थे तो शायद गलत नहीं होगा. वास्तव में रोमांस उनका ओढ़ना-बिछौना था. अंदाजा लगाइए, तीस के दशक के अलीगढ़ विश्वविद्यालय का क्या बौद्धिक कैलीबर रहा होगा जहां एक साथ जांनिसार अख्तर, सफिया मजाज, अली सरदार जाफरी, ख्वाजा अहमद अब्बास और इस्मत चुगताई जैसे दिग्गज पढ़ रहे हों.
जांनिसार अख्तर को जानना है तो उनकी ‘साथिन’ सफिया अख्तर के उनको लिखे खत पढ़िए या कृष्ण चंदर के लेख, जहां वो कहते हैं, ‘‘जांनिसार वो अलबेला शायर है जिसको अपनी शायरी में चीखते रंग पसंद नहीं हैं, बल्कि उसकी शायरी घर में सालन की तरह धीमी-धीमी आंच पर पकती है.’’
संगीतकार खय्याम कहते हैं कि जांनिसार में अल्फाज और इल्म का खजाना था. उनके अनुसार फिल्म रजिया सुल्तान में जांनिसार ने ऐ दिले नादां गीत के छह-छह मिसरों के लिए कम से कम कुछ नहीं तो सौ अंतरे लिखे होंगे. एक-एक गीत के लिए कई मुखड़े लिख कर लाते थे और ज्यादा वक्त भी नहीं लगता था उनको गीत लिखने में.
वो बहुत माइल्ड टोन में गुफ्तगू करते थे और अपने शेर भी उसी टोन में पढते थे. जांनिसार के जानने वाले कहते हैं कि वो मुशायरे के शायर नहीं थे. उनका तरन्नुम भी अच्छा नहीं था. फैज का भी यही हाल था. उनके मुंह से उनका कलाम सुननेवालों का जी चाहता था कि इन्हें कोई और पढ़े.
जांनिसार को बहुत नजदीक से देखनेवालों में शायर निदा फाजली भी हैं जो उनसे बहुत जूनियर जरूर थे लेकिन उन्होंने मुंबई में अपने संघर्ष के दिनों की बहुत सारी शामें उनके साथ बितायी थीं. उन्होंने बताया, ‘‘साहित्य में लगाव होने के कारण मैं जांनिसार के करीब आ गया था और मेरी हर शाम कमोबेश उनके ही घर पर गुजरती थी.’’ यह वो जमाना था जब जांनिसार के वक्त का ज्यादा हिस्सा साहिर लुधियानवी के यहां गुज़रता था.
अपने घर वो सिर्फ कपड़े बदलने आते थे. यूं भी वो रोजाना कपड़े बदलने व नहाने के शौकीन नहीं थे. निदा कहते हैं कि वो जांनिसार अख्तर के मुश्किल दिन थे. साहिर का सिक्का चल रहा था. साहिर को अपनी तन्हाई से बहुत डर लगता था. जांनिसार इस खौफ को कम करने का माध्यम थे जिसके एवज में वो हर महीने 2000 रुपये दिया करते थे. निदा कहते हैं कि ये जो अफवाह उड़ी हुई है कि वो साहिर के गीत लिखते थे, ये सही नहीं है. लेकिन वो गीत लिखने में उनकी मदद जरूर करते थे.
लेकिन इस दोस्ती का कोई भविष्य नहीं था. आखिरकार ये दोस्ती एक दिन दिल्ली के इंपीरियल होटल में टूट गयी और इसका सबब बना एक प्रेम त्रिकोण! साहिर की कई महिलाओं से दोस्ती हुआ करती थी. ये दोस्ती लवज़ी होती थी जो कभी भी अपने अंजाम तक नहीं पहुंचती थी. दिल्ली की एक मोहतरमा के साथ साहिर की दोस्ती थी.
हुआ यूं कि एक दिन जब साहिर शॉपिंग करके लौटे तो उन्हें जांनिसार हमेशा की तरह इंतजार करते नहीं मिले. पता चला कि उन मोहतरमा ने जांनिसार साहब को इनवाइट कर लिया था. साहिर को इतना गुस्सा आया कि वो उसी वक्त उन साहिबा के घर गये और तूतू-मैंमैं कर जांनिसार को वहां से वापस ले आये. उन्हें गालीगलौज की बात अच्छी नहीं लगी. जांनिसार ने देर रात अपना सामान उठाया और साहिर का होटल छोड़ दिया. उस दिन से जांनिसार के संबंध साहिर से खराब हो गए और यहीं से उनका रिवाइवल शुरू हुआ.
जांनिसार ने अपने दो बेटों जावेद और सलमान को अपनी पत्नी सफिया के हवाले कर मुंबई का रु ख किया. वो भी बहुत अच्छी लेखिका थीं. उन्होंने एक बार अपने पति को लिखा था, ‘‘जांनिसार, ज्यादा लिखना और तेजी से लिखना बुरा नहीं है, लेकिन मैं चाहती हूं कि तुम रु क-रु क के और थम-थम के लिखो.’’ असगर वजाहत ने सफिया के जांनिसार को लिखे खतों का हिंदी में अनुवाद किया है.
वो कहते हैं, ‘‘कल्पना कीजिए 1942-43 में एक मुसलमान जवान खातून किस कदर गहराई से अपने आपको, अपने रिश्ते को देखती है और एनालाइज़ करती है अपने माशरे को. इस स्तर की इंटेलेक्चुअल किस कदर बेपनाह, बेतहाशा मोहब्बत करने लगी जांनिसार से, उससे लगता है कि उनमें (जांनिसार में) ज़रूर कुछ रहा होगा.’’
सफिया के खतों में उनके बेटे जादू उर्फ जावेद अख्तर का काफी जिक्र है. जावेद अपना नाम रखे जाने की दिलचस्प कहानी बताते हैं, ‘‘अपनी शादी से पहले मेरे वालिद ने एक नज्म लिखी थी जिसका मिसरा था लम्हा लम्हा किसी जादू का फसाना होगा. शादी के बाद जब मैं आया तो अस्पताल में ही उनके किसी दोस्त ने सुझाया कि उस मिसरे पर मेरा नाम क्यों न जादू रख दिया जाए. मेरा नाम जादू ही रख दिया गया.’’
जादू से जावेद बनने की कहानी पर जावेद बताते हैं, ‘‘साल-डेढ़ साल तक मुङो इसी नाम से पुकारा गया. लेकिन जब स्कूल भेजने की बात आयी तो सवाल उठा कि क्या नाम लिखाया जाए. सब लोग जादू नाम सुन कर हंसेंगे तो अब्बा ने कहा कि भई अब तो जादू की आदत पड़ गई है, तो उससे ही मिलता नाम सोचो. तो इस तरह मेरा नाम जावेद पड़ा. आम तौर से लोगों के असली नाम पर पेट नेम बनता है. मेरे केस में पेट नेम से मेरा असली नाम पड़ा.’’
जावेद अपनी किताब तरकश में लिखते हैं कि उनकी उनके अब्बी जांनिसार से बगावत और नाराजगी थी.
लिखते हैं, ‘‘लड़कपन से जानता हूं कि चाहूं तो शायरी कर सकता हूं, मगर अब तक की नहीं है. ये भी मेरे बाप से शायद मेरी बगावत का प्रतीक है.1979 में पहली बार शेर कहता हूं. और ये शेर लिख कर मैंने विरासत और अपने बाप से सुलह कर ली है.’’ बाप से इस नाराजगी की झलक मिलती है जावेद अख्तर की लिखी फिल्म त्रिशूल में भी, जहां बाप और बेटे के बीच तनाव है, टकराहट है. जावेद अब इस नाराज़गी को दूसरी तरह से देखते हैं. वो कहते हैं, ‘‘असल में दूरियां गलतफहमियां पैदा करती हैं.’’
निदा कहते हैं कि एक बार अटल बिहारी वाजपेई ने उन्हें बताया था कि जांनिसार अख्तर ने उन्हें ग्वालियर में पढ़ाया था. उनके बारे में एक कहानी ये है कि जब वो अलीगढ़ में पीएचडी कर रहे थे तो एक बार उनके स्टोव का तेल खत्म हो गया. तब उन्होंने अपनी अधूरी पीएचडी की थीसिस जला कर चाय बनायी थी. उनके बारे में एक और कहानी मशहूर है कि मजाज ने अपनी बहन सफिया की जांनिसार से शादी के बाद उन्हें व्हिस्की की एक बोतल तोहफे में दी थी. बाद में उनकी मयख्वारी पर कई किस्से कहे गये.
जब तक लोग इश्क करेंगे जांनिसार की नज्में और नगमें होठों पर रहेंगे-आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो.. साया कोई लहराए तो लगता है कि तुम हो..जब शाख़ कोई हाथ लगाते ही चमन में.. शर्माए लचक जाए तो लगता है कि तुम हो..

नामदेव के निधन पर साहित्य जगत में शोक

नामदेव ढसाल
प्रख्यात कवि एवं दलित अधिकार कार्यकर्ता नामदेव ढसाल के निधन पर मराठी साहित्य एवं विचार जगत में दुःख व्याप्त है. उनके पुराने सहयोगी तथा राजनीतिक साथी और विरोधी भी उन्हें एक बाग़ी विचारक और कार्यकर्ता के रूप में याद करना पसंद करते हैं.
डॉक्टर बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के पोते और भारिप बहुजन महासंघ पार्टी के अध्यक्ष डॉक्टर प्रकाश अंबेडकर कभी ढसाल के सहयोगी तो कभी विरोधी रहे हैं. उनका कहना है कि ढसाल एक उत्कृष्ट कवि थे.

पुणे विश्वविद्यालय में महात्मा फुले अध्यासन के प्रोफ़ेसर और साहित्यिक हरी नरके ने कहा, "फूले, आंबेडकर और मार्क्स की विचारधारा आम लोगों तक पहुंचाना, यही "कई लोग जीवन में विचारों के क्षेत्र में पिछड़ जाते हैं. लेकिन ढसाल ने मार्क्सवादी आंदोलन से शुरुआत की और वे आगे बढते गए. एक विवेकशील नेता के रूप में उन्होंने स्वयं को स्थापित किया. मै उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं."
क्लिक करेंढसाल की विचारधारा की विरासत होगी."

कविताओं में पीड़ा

उन्होंने कहा, "आज अंबेडकरवादी आंदोलन कुछ जातियों तक सीमित हो चुका है, लेकिन यह अंबेडकरवाद की नहीं, बल्कि उनके बाद की पीढ़ियों की सीमा है. ढसाल ने यह सीमा लांघते हुए क्लिक करेंदलितों के साथ आदिवासी तथा अन्य घटकों को भी इस विचारधारा में शामिल किया."
प्रोफ़ेसर नरके ने कहा, "प्रतिभा की दृष्टि से देखा जाए तो तुकाराम के बाद सबसे विद्रोही कवि के रूप में ढसाल जाने जा सकते है. वे मराठी कविता को वैश्विक साहित्य के आसमान तक ले गए. साथ ही दलित कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने अन्याय के विरोध में लड़ाई लड़ी."
उन्होंने कहा, "इस बीच उन्हें कुछ वैचारिक समझौते करने पड़े लेकिन उन्होंने केवल शब्दों के बजाए वास्तविक व्यवहार को अधिक महत्व दिया. भविष्य में यह मुद्दा और भी महत्त्वपूर्ण होने वाला है."
क्लिक करेंघुमंतू जनजाति से आए कार्यकर्ता और साहित्य अकादमी तथा सार्क लिटररी पुरस्कार प्राप्त लक्ष्मण गायकवाड कहते है, "उन्मुक्त और बिंदास जीवन जीने वाला एक असाधारण लेखक हमारे बीच से चला गया है."

पीड़ा का आक्रोश

नामदेव ढसाल
उन्होंने कहा, "ढसाल ने वैश्विक साहित्य में मराठी साहित्य की छाप छोड़ी है. वे केवल दलित साहित्यकार नहीं थे, उन्होंने पूरे मराठी साहित्य को प्रतिष्ठा दिलाई है. वे लेखक और कार्यकर्ता दोनों थे. जितना रूखा सूखा उनका बोलना था उतना ही उनके मन में साफ़गोई और भोलापन था."
ख़ुद गायकवाड और ढसाल काफ़ी नजदीक थे और गायकवाड कहते हैं, "ढसाल एवं उनके समकालीन लेखकों ने दलित लेखकों की एक पीढ़ी को प्रेरित किया."
उन्होंने कहा, "साठ के दशक में दलित साहित्य ने पूरे समाज को झकझोर दिया था और हमारे जैसे कई लेखक उससे प्रेरित हुए."
गायकवाड ने कहा, "मेरे उनसे व्यक्तिगत रिश्ते थे. कुछ ही दिन पूर्व मैं उनसे मिला था, लेकिन आज उनके जाने के बाद मुझे लगता है कि मुझे उनसे पिछले तीन चार दिनों में मिलना चाहिए था."

मराठी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष एवं दलित साहित्यिकों में शुमार एफएम शिंदे ने भी ढसाल के निधन पर दुःख व्यक्त किया. उन्होंने कहा कि ढसाल की कविताओं में अपार पीड़ा का आक्रोश है.

हिंदी: दलित साहित्य की 10 श्रेष्ठ रचनाएँ

हिंदी: दलित साहित्य की 10 श्रेष्ठ रचनाएँ


कौशल्या वैसंत्री की ये रचना हिंदी दलित साहित्य में पहली महिला आत्मकथा मानी जाती है.
हिंदी साहित्य में दलितों के जीवन को केंद्र में रखकर अनेक किताबें लिखी गई हैं. मैंने उनमें से कुछ वैसी किताबों को यहां शामिल किया है जिनमें दलित जीवन की सच्चाई बेहद यथार्थवादी नज़रिए से अभिव्यक्त हुई है.
1. जूठन (आत्मकथा)- ओम प्रकाश वाल्मीकि

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी दलितों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए जो एक लंबा संघर्ष करना पड़ा, 'जूठन' इसे गंभीरता से उठाती है.दलित साहित्य में ‘जूठन’ ने अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है. इस पुस्तक ने दलित, गैर-दलित पाठकों, आलोचकों के बीच जो लोकप्रियता अर्जित की है, वह उल्लेखनीय है.
प्रस्तुति और भाषा के स्तर पर यह रचना पाठकों के अन्तर्मन को झकझोर देती है.
भारतीय जीवन में रची-बसी जाति–व्यवस्था के सवाल को इस रचना में गहरे सरोकारों के साथ उठाया गया है.
दलितों की वेदना और उनका संघर्ष पाठक की संवेदना से जुड़कर मानवीय संवेदना को जगाने की कोशिश करते हैं. इसीलिए यह पुस्तक पाठकों के बीच इतनी लोकप्रिय हुई है.
2मुर्दहिया (आत्मकथा) – तुलसी राम
जूठन भारत के पश्चिमी उत्तर-प्रदेश की ब्राह्मणवादी, सामंती मानसिकता के उत्पीड़न की अभिव्यक्ति है तो मुर्दहिया पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचल में शिक्षा के लिए जूझते एक दलित की मार्मिक अभिव्यक्ति है.

मेरी प्रिय किताबें: ओ पी वाल्मीकि

  • बुद्ध और उनका धम्म - डॉ. अम्बेडकर
  • वोल्गा से गंगा - राहुल सांकृत्यायन
  • तमस - भीष्म साहनी
  • गोदान - प्रेमचंद
  • जूठन ओमप्रकाश वाल्मीकि
  • सारा आकाश - राजेंद्र यादव
  • मलबे का मालिक - मोहन राकेश
  • झूठा सच - यशपाल
  • आधा गांव - राही मासूम रज़ा
  • राग दरबारी - श्रीलाल शुक्ल
जहां सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक विसंगतियां क़दम–क़दम पर दलित का रास्ता रोक कर खड़ी हो जाती है और उसके भीतर हीनताबोध पैदा करने के तमाम षड्यंत्र रचती है.
लेकिन एक दलित संघर्ष करते हुए इन तमाम विसंगतियों से अपने आत्मविश्वास के बल पर बाहर आता है और जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय में विदेशी भाषा का विद्वान बनता है.
यही इस रचना को एक गंभीर सरोकारों की रचना बनाता है जिसे पाठक और आलोचक स्वीकार करते हैं.
3. पच्चीस चौका डेढ़ सौ (कहानी) – ओम प्रकाश वाल्मीकि
दलित कहानियों में सामाजिक परिवेशगत पीड़ाएं, शोषण के विविध आयाम खुल कर और तर्क संगत रूप से अभिव्यक्त हुए हैं.
ग्रामीण जीवन में अशिक्षित दलित का जो शोषण होता रहा है, वह किसी भी देश और समाज के लिए गहरी शर्मिंदगी का सबब होना चाहिए था.
‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’ कहानी में इसी तरह के शोषण को जब पाठक पढ़ता है, तो वह समाज में व्याप्त शोषण की संस्कृति के प्रति गहरी निराशा से भर उठता है.
ब्याज पर दिए जाने वाले हिसाब में किस तरह एक सम्पन्न व्यक्ति, एक गरीब दलित को ठगता है और एक झूठ को महिमा-मण्डित करता है, वह पाठक की संवेदना को झकजोर कर रख देता है.
4. अपना गाँव (कहानी ) – मोहन दास नैमिशराय
अपना गाँव मोहनदास नैमिशराय की एक महत्त्वपूर्ण कहानी है जो दलित मुक्ति-संघर्ष आंदोलन की आंतरिक वेदना से पाठकों को रूबरू कराती है.
दलित साहित्य की यह विशिष्ट कहानी है. दलितों में स्वाभिमान और आत्मविश्वास जगाने की भाव भूमि तैयार करती है.
मोहनदास नैमिशराय ने भारतीय संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव अँबेडकर की जीवनी भी लिखी है.
इसीलिए यह विशिष्ट कहानी बन कर पाठकों की संवेदना से दलित समस्या को जोड़ती है.
दलितों के भीतर हज़ारों साल के उत्पीड़न ने जो आक्रोश जगाया है वह इस कहानी में स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त होता है.
भाषा की सहजता इस कहानी को गंभीर सरोकारों से जोड़ने में सफल होती है.
5. ठाकुर का कुआं (कविता ) – ओम प्रकाश वाल्मीकि
भारतीय समाज व्यवस्था ने दलितों के मौलिक अधिकार ही नहीं छीने बल्कि उन्हें निकृष्ट जीवन जीने के लिए भी बाध्य किया और उन पर कड़े कानून भी लागू किए. उनके संपत्ति अर्जित करने कर प्रतिबंध लगाए.
आज भी दलितों के पास अपनी निजी जमीन व अन्य संपत्ति नहीं है जिसे अनदेखा करते हुए अनेक राज्य सरकारें दलितों को स्थायी निवास प्रमाण-पत्र जारी नहीं करती हैं यानी कहने को वे भारत के नागरिक हैं लेकिन राज्य सरकारें ऐसा नहीं मानती हैं.
सैकड़ों साल एक ही स्थान पर रहने के बावजूद वे उस स्थान के निवासी नहीं माने जाते हैं क्योंकि उनके पास संपत्ति के कागजात नहीं हैं.
ठाकुर का कुआं (कविता ) इसी सामाजिक सच्चाई को अभिव्यक्त करती है और दलितों की अंत:पीड़ा को सहज और सरल शब्दों में पाठकों के सामने रखती है.
चूल्हा मिट्टी का /मिट्टी तालाब की /तालाब ठाकुर का ...
6सुनो ब्राह्मण (कविता ) – मलखान सिंह
मलखान सिंह की ‘सुनो ब्राह्मण कविता ने दलित साहित्य में जो प्रतिष्ठा अर्जित की है वह अपने आप में एक उपलब्धि मानी जाएगी.
ये कविता वर्ण-व्यवस्था, ब्राह्मणवादी, सामंती–व्यवस्था पर तीखेपन के साथ हमला करती है.
साथ ही उन तमाम मिथकों, बिम्बों और प्रतीकों को भी चेतावनी देती है जो साहित्य में जड़ जमाए बैठे हैं.
सीधे–सीधे संवादात्मक शैली में यह कविता अपनी पूरी ऊर्जा के साथ दलित चेतना को पाठकों के सामने बेबाकी से प्रस्तुत करती है.
दलित साहित्य की यह एक श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण रचना है॰
सुनो ब्राह्मण ! हमारी दासता का सफर / तुम्हारे जन्म से शुरू होता है /और इसका अंत भी / तुम्हारे अंत के साथ होगा.
7॰ नो बार (कहानी) – जयप्रकाश कर्दम
'अछूत' मराठी के दलित साहित्यकार दया पवार की रचना है जिसमें महाराष्ट्र की महार जाति के जीवन संघर्ष का जीवंत चित्रण है.
अखबारों के वैवाहिक विज्ञापनों में अक्सर लिखा होता है– जाति-बंधन नहीं (नो बार).
लेकिन इसमें भी एक छिपा एजेंडा होता है. एक दलित के लिए यह शर्त लागू नहीं यानी दलित स्वीकार्य नहीं.
यह कहानी इसी समस्या को केंद्र में रख कर सामाजिक जीवन में रची बसी जाति वैमनस्य की भावना को अभिव्यक्त करती है.
इस कहानी के प्रस्तुतिकरण से जो प्रभावोत्पादकता पैदा होती है, वह पाठक को छू जाती है. वही इसे एक अच्छी कहानी के रूप में मान्यता दिलाती है.
8. मैं दूंगा माकूल जवाब (कविता) – असंगघोष
असंगघोष की यह कविता दलित साहित्य में अपनी एक खास जगह बना चुकी है.
यह कविता अपनी प्रस्तुति में जितनी सहज और सरल है, बोधगम्यता में उतनी ज्यादा गहन अनुभूतियों को भी अभिव्यक्त करती है.
दलित के भीतर उफनते आक्रोश की यह कविता मानवीय संवेदनाओं को बहुत दूर तक ले जाती है.
दलितों को शिक्षा से दूर रखने के जो षड्यंत्र व्यवस्था के नाम पर रचे गए, यह कविता उनके लिए एक माकूल जवाब है.
इसीलिए यह दलित कविता में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाने में सफल हुई है.
समय के साथ /इसका/ मैं दूंगा माकूल जवाब/मेरे जगह/पढ़ेंगे मेरे बच्चे /जरूर !
9. दोहरा अभिशाप (आत्मकथा) – कौशल्या वैसन्त्री
कौशल्या वैसन्त्री की यह आत्मकथा हिन्दी दलित साहित्य की पहली महिला आत्मकथा मानी जाती है.
कौशल्या वैसन्त्री अपने जीवन की एक–एक पर्त को जिस तरह उघाड़ कर पाठकों के सामने रखती हैं वह एक साहस का काम है.
इस आत्मकथा की एक विशिष्टता है उसकी भाषा, जो जीवन की गंभीर और कटू अनुभूतियों को तटस्थता के साथ अभिव्यक्त करती है.
एक दलित स्त्री को दोहरे अभिशाप से गुज़रना पड़ता है- एक उसका स्त्री होना और दूसरा दलित होना.
कौशल्या वैसन्त्री इन दोनों अभिशापों को एक साथ जीती हैं जो उनके अनुभव जगत को एक गहनता प्रदान करते हैं.
10. शिकंजे का दर्द (आत्मकथा ) - सुशीला टाकभौरे
सुशीला टाकभौरे की इस आत्मकथा ने अपने पारिवारिक और सामाजिक संघर्ष को जिस तरह शब्दबद्ध किया है वह इसे दलित साहित्य में एक विशिष्ट स्थान दिलाता है.
एक स्त्री होने की पीड़ा और दलित जीवन की विसंगतियों को अभिव्यक्त करने में एक आत्मकथाकार को सफलता मिली है.
इसीलिए यह दलित साहित्य की एक श्रेष्ठ रचना है.

हिंदी के 10 सदाबहार नाटक

हिंदी के 10 सदाबहार नाटक


खड़ी बोली हिंदी के सौ साल से ज़्यादा के इतिहास में कई महत्वपूर्ण नाटक लिखे गए और उनका सफलतापूर्वक मंचन किया गया. उन्हीं नाटकों में से मैंने अपने हिसाब से ये 10 सर्वश्रेष्ठ नाटक चुने हैं जो मंचन और पाठ दोनों ही लिहाज से मुझे बहुत प्रिय हैं.
1. अंधेर नगरी – भारतेंदु हरिश्चंद्र
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अंधेर नगरी, भारत दुर्दशा, नीलदेवी, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति जैसी रचनाएं कीं.
सन् 1881 में मात्र एक रात में लिखा गया नाटक आज भी उतना ही सामयिक और समकालीन है

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बाल रंगमंच हो अथवा वयस्क रंगमंच – यह नाटक सभी तरह के दर्शकों में लोकप्रिय है. एक भ्रष्ट व्यवस्था और उसमें फंसाया जाता एक निरीह – क्या आज भी इस स्थिति में कोई परिवर्तन आया है?
ये नाटक हिंदी रंगमंच में सबसे ज़्यादा मंचित नाटकों में से एक है.
2. ध्रुवस्वामिनी – जयशंकर प्रसाद
भले ही जयशंकर प्रसाद के नाटकों को मंच के अनुकूल न माना गया हो लेकिन ‘ध्रुवस्वामिनी’ हमेशा से रंगकर्मियों के बीच चर्चा का विषय रहा है.
मात्र नाट्य मंडलियों के साथ ही नहीं, स्कूलों कॉलेजों के छात्र-छात्राओं के बीच भी इस नाटक का ख़ूब मंचन हुआ है.
इस नाटक की सबसे बड़ी बात है उसका कथ्य – यदि पति नपुंसक है तो उसे नकारने की पहल स्त्री की तरफ़ से होती है और इसमें धर्म और शास्त्र भी उसका समर्थन करते हैं.
3. अंधा युग – धर्मवीर भारती

मेरी प्रिय हिंदी रचनाएँ: देवेंद्र राज अंकुर

  • गोदान – प्रेमचंद
  • शेखर: एक जीवनी – अज्ञेय
  • चित्रलेखा – भगवतीचरण वर्मा
  • संस्कृति के चार अध्याय – रामधारी सिंह ‘दिनकर’
  • ज़िंदगीनामा – कृष्णा सोबती
  • काशी का अस्सी – काशीनाथ सिंह
  • क्या भूलूं क्या याद करूं – बच्चन
  • कलम का सिपाही – अमृत राय
  • आवारा मसीहा – विष्णु प्रभाकर
  • आधा गांव – राही मासूम रज़ा
  • कामायनी - प्रसाद
महाभारत की कथा के बहाने से द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के विनाश, अनास्था और टूटते मूल्यों की महागाथा.
यहां तक कि ईश्वर की मृत्यु की घोषणा. एक काव्य नाटक होने के बावजूद ‘अंधा युग’ रंगमंच पर सबसे ज़्यादा प्रस्तुत होनेवाली कृति है.
4. आषाढ़ का एक दिन – मोहन राकेश
कलाकार अथवा रचनाकार के सामने सृजन या सत्ता में से किसी एक को चुनने का प्रश्न और फिर उसकी परिणति – यह एक ऐसा कथ्य था जिसने सभी रंगकर्मियों को झकझोर कर रख दिया.
शायद ही कोई निर्देशक या कोई रंगमंडली होगी जिसने इस नाटक को न खेला हो. यथार्थवाद का भारतीय स्वरूप क्या होना चाहिए, ‘आषाढ़ का एक दिन’ उसका सबसे अच्छा उदाहरण है.
5. बकरी – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
जयशंकर प्रसाद ने ध्रुवस्वामिनी, स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त जैसे प्रसिद्ध नाटक लिखे.
सातवें दशक में रंगमंच में लोकतत्वों को लेकर लिखे गए नाटकों में से सबसे सफल और चर्चित नाटक रहा ‘बकरी’.
इस नाटक में नौटंकी लोक नाट्य शैली के गीत-संगीत के माध्यम से एक आधुनिक कथ्य की प्रस्तुति की गई है कि नेता लोग किस तरह जनता को अपनी स्वार्थपूर्ति का साधन बनाते हैं.
सर्वेश्वर जी का ये नाटक रंगकर्मियों और दर्शकों में समान रूप से लोकप्रिय है.
6. एक और द्रोणाचार्य – शंकर शेष
आधुनिक शिक्षा पद्धति पर एकलव्य और द्रोणाचार्य की कथा के माध्यम से गहरा प्रहार किया गया है.
इस नाटक में दो समानांतर प्रसंग एक साथ चलते हैं. एक प्रसंग महाभारत का है तो दूसरा आज के एक प्राध्यापक और उनके परिवार का प्रसंग.
‘एक और द्रोणाचार्य’ हमारे अपने रोज़मर्रा के सरोकारों से जुड़ा एक सशक्त नाटक है.
7. कबीरा खड़ा बाज़ार में – भीष्म साहनी
कबीर की ज़िन्दगी, कबीर की कविता और उससे भी ज़्यादा एक कलाकार, महात्मा और तत्कालीन व्यवस्था के बीच टकराव का चित्र है ये नाटक.
आज के सांप्रदायिक दंगों और तनावों के बीच और भी सामयिक है ये नाटक.
8. महाभोज – मन्नू भंडारी
भले ही पहले यह रचना एक उपन्यास के रूप में की गई लेकिन बाद में एक नाटक के रूप में बेहद चर्चित और मंचित हुई.
इसकी वजह वही है कि नेता लोग किस तरह चुनाव जितने के लिए कथित रूप से निरीह लोगों की हत्या को भी हथियार बना लेते हैं.
मोहन राकेश ने आषाढ़ का एक दिन और आधे अधूरे जैसे मशहूर नाटक लिखे.
यह एक ऐसा कथ्य है जिसे हर आम आदमी ने भुगता और झेला है.
9. कोर्ट मार्शल – स्वदेश दीपक
हिंदी रंगमंच में दलित पात्र को केंद्र में रखकर लिखा गया बहुत सशक्त नाटक है ये.
मुक़दमे की कार्यवाही नाटक के शिल्प और संरचना को नाटकीय तनाव से भर देती है. नतीजा यह कि दर्शक बंधे से बैठे देखते रहते हैं.
10. जिस लाहौर नई देख्या – असग़र वज़ाहत
1947 के भारत विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया ये पहला नाटक है.

कहानियों और उपन्यासों में भले ही यह कथ्य बार-बार आता रहा हो, लेकिन नाटक में अपनी आँखों के सामने देखने वाले दर्शकों को बेहद जकड़ लेता है इसका कथानक.

हिंदी के 10 श्रेष्ठ यात्रा संस्मरण

हिंदी के 10 श्रेष्ठ यात्रा संस्मरण


हिन्दी में यात्रा संस्मरण तो बहुत हैं. उनमें से श्रेष्ठ दस कृतियां चुनना बहुत मुश्किल काम था. लेकिन मैंने अपने विवेक से जो रचनाएं चुनीं, वे इस प्रकार हैं :
1. यात्रा का आनंदः दत्तात्रेय बालकृष्ण 'काका' कालेलकर
काका कालेलकर शुरू में गुजराती में लिखते थे. उनकी 'हिमालय यात्रा' अनुदित होकर हिंदी में छपी थी. बाद में वो हिंदी में ही लिखने लगे.
घुमक्कड़, यात्रा, संस्मरण
हिंदी के मशहूर साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' के साथ ओम थानवी.
उन्हें यात्राओं में बहुत आनंद आता था. देश और विदेश में अनेक प्रवास उन्होंने लिपिबद्ध किए. भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के उपाध्यक्ष होने पर सुदूर विदेश यात्राओं का सुयोग भी मिला.
उनका कोई साढ़े तीन सौ पृष्ठों का संकलन 'यात्रा का आनंद' बहुत महत्त्वपूर्ण कृति है. वह बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से छपी थी.
संकलित यात्रा-वृत्तांत विभिन्न रूपों में हैं - संस्मरण की शैली में, लेख रूप में, पत्रों की शक्ल में.
करसियांग, नीलगिरि, अजंता, सतपुड़ा, गंगोत्री आदि की भारतीय यात्राओं के साथ अफ्रीका, यूरोप, उत्तरी और दक्षिणी अमरीका आदि की कोई सौ यात्राओं का ब्योरा हमें इस पुस्तक में मिलता है - जमैका, त्रिनिदाद और (ब्रिटिश) गयाना तक का.
लेखक की जिज्ञासु वृत्ति इन संस्मरणों की विशेषता है और जानकारी साझा करने की ललक भी. विदेश में अक्सर वो बाहर की प्रगति के बरअक्स भारतीय संस्कृति की निरंतरता को याद करते हैं.
2. किन्नर देश में: राहुल सांकृत्यायन
महापंडित राहुल सांकृत्यायन हिंदी में 'घुमक्कड़-शास्त्र' के प्रणेता थे. वो जीवन-भर भ्रमणशील रहे.
ज्ञान के अर्जन में उन्होंने सुदूर अंचलों की यात्राएं कीं. उन पर अनेक किताबें लिखीं.

मेरी प्रिय पुस्तकें: ओम थानवी

  • साकेत - मैथिलीशरण गुप्त
  • कामायनी - जयशंकर प्रसाद
  • अनामिका -निराला
  • गोदान - प्रेमचंद
  • बाणभट्ट की आत्मकथा - हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
  • शेखर: एक जीवनी - अज्ञेय
  • त्यागपत्र - जैनेंद्र कुमार
  • परती परिकथा - फणीश्वरनाथ रेणु
  • चांद का मुंह टेढ़ा है - मुक्तिबोध
  • अंतिम अरण्य - निर्मल वर्मा
  • मुक्ति प्रसंग - राजकमल चौधरी
  • राग दरबारी - श्रीलाल शुक्ल
'किन्नर देश में' हिमाचल प्रदेश में तिब्बत सीमा पर सतलुज नदी की उपत्यका में बसे सुरम्य इलाक़े किन्नौर की यात्रा-कथा है.
यह यात्रा उन्होंने साल 1948 में की थी. मूल शब्द 'किन्नर' है, इसलिए राहुलजी सर्वत्र इसी नाम का प्रयोग करते हैं.
कभी बस और घोड़े के सहारे और कभी कई दफ़ा पैदल भी की गई यात्रा का वर्णन करते हुए राहुलजी क्षेत्र के इतिहास, भूगोल, वनस्पति, लोक-संस्कृति आदि अनेक पहलुओं की जानकारी जुटाते हैं.
किताब का सबसे दिलचस्प पहलू वह है जहां वे अपने जैसे घुमक्कड़ों की खोज कर उनका संक्षिप्त जीवन-चरित भी लिखते हैं.
उन्हें एक ऐसा यात्री मिला जो पांच बार कैलाश-मानसरोवर हो आया था. उसने सैकड़ों यात्राएं कीं और डाकुओं ही नहीं, मौत से दो-चार हुआ और बच आया.
पुस्तक का अंतिम हिस्सा सूचनाओं से भरा है, जहां वो किन्नौर के अतीत, लोक-काव्य और उसका हिंदी अनुवाद, किन्नर भाषा का व्याकरण और शब्दावली समझाते हैं.
3. अरे यायावर रहेगा यादः सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'
हिंदी साहित्य में रचनात्मक यात्रा-वृत्तांत की लीक डालने वाली कृति अब कमोबेश क्लासिक का स्थान पा चुकी है.
अज्ञेय की एक कविता ('दूर्वाचल') की पंक्ति इस यात्रा-वृत्तांत का नाम बनकर अपने आप में एक मुहावरा-सा बन चुकी है और 'यायावर' नाम लगभग 'अज्ञेय' का पर्याय.
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापान के भारत पर हमले की आशंका में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, मुश्ताक़ अली आदि की तरह अज्ञेय भी देश-रक्षा में मित्र (अलाइड) देशों की फ़ौज में शामिल हो गए थे.
युद्ध ख़त्म होने पर लौट आए. फ़ौजी जीवन से आम जीवन में वापसी तक अज्ञेय ने अनेक भारतीय स्थलों की जो यात्राएं कीं, वे इस किताब में लिपिबद्ध हैं.
पूर्वोत्तर के जिन क़स्बों, जंगलों, माझुली जैसे द्वीप के बारे में उत्तर भारत का निवासी जहां आज भी बहुत नहीं जानता, अज्ञेय ने चालीस के दशक में उन्हें फ़ौजी ट्रक हांकते हुए नापा.
राहुल सांकृत्यायन ने 'किन्नर देश में' जैसा मशहूर यात्रा संस्मरण लिखा था. फोटो साभार: हिंदी बुक सेंटर, दिल्ली
असम से बंगाल, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, तक्षशिला (अब पाकिस्तान में), एबटाबाद (जहां हाल में ओसामा बिन लादेन को मारा गया था), हसन अब्दाल, नौशेरा, पेशावर और अंत में खैबर - यानी भारत की एक सीमा से दूसरी सीमा की यात्रा; उसमें तरह-तरह के अनुभव, दृश्य, लोग और हादसे.
इस यात्रा के अलावा कुल्लू-रोहतांग जोत की यात्रा भी इस कृति में है, जब लेखक ने मौत को क़रीब से देखा.
उस संस्मरण का नाम ही है, 'मौत की घाटी में'. अब रोहतांग न मौत की घाटी रहा, न यात्रा उतनी दुगर्म. 'एलुरा' और 'कन्याकुमारी से नंदा देवी' वृत्तांत भी कृति में बहुत दिलचस्प हैं.
दक्षिण के बारे में भी उस ज़माने में यह यात्रा-वृत्तांत हिंदी पाठक समाज के लिए जानकारी की परतें खोलने वाला साबित हुआ था.
4. ऋणजल धनजलः फ़णीश्वरनाथ रेणु
यात्राएं केवल तफ़रीह के लिए नहीं होतीं. 'मैला आंचल' और 'परती परिकथा' जैसी ज़मीनी कृतियों के रचयिता रेणु ने दो संस्मरण लिखे, जो इस विधा को नई भंगिमा देते हैं.
दोनों में उनके अपने बिहार की जानी-पहचानी जगहों की यात्रा है, लेकिन नितांत भयावह दिनों की.
साल1966 में दक्षिणी बिहार में पड़े सूखे के वक्त उस क्षेत्र की यात्रा उन्होंने दिनमान-संपादक और कवि-कथाकार 'अज्ञेय' के साथ की.
बाद में साल 1975 में पटना और आसपास के क्षेत्र में बाढ़ की लीला को उन्होंने क़रीब से देखा. दोनों जगह उनके साथ उनकी नज़र विपरीत परिस्थितियों में भी मानवीय करुणा को चीन्हती है.
बाढ़ का इलाक़ा हो या सूखा क्षेत्र, उनका वर्णन हर जगह संवेदनशील कथाकार का रहता है. गंभीर पर्यवेक्षण, जो उनकी चिर-परिचित ठिठोली को भी उन हालात में भूलने नहीं देता.
संस्मरणों में पीड़ित तो आते ही हैं फ़ौजी, राहतकर्मी, पत्रकार, मित्र, पत्नी लतिकाजी की उपस्थिति उनको और जीवंत बनाती है. और तो और राहत सामग्री गिराता हेलिकॉप्टर भी जैसे कथा का एक चरित्र बनकर उपस्थित होता है.
5. आख़िरी चट्टान तकः मोहन राकेश
गोवा से कन्याकुमारी तक की यह यात्रा कथाकार और नाटककार मोहन राकेश ने सन् 1952-53 में की थी कोई तीन महीने में.
किताब उन्होंने ‘रास्ते के दोस्तों’ को समर्पित की, साथ में यह जोड़ते हुएः "पश्चिमी समुद्र-तट के साथ-साथ एक यात्रा".
देश के दक्षिण और समुद्र क्षेत्र की मोहन राकेश की यह पहली यात्रा थी.
जैसा कि रेल का ब्योरा लिखने से पहले वे चार पन्नों में कुछ पूर्व-पीठिका-सी बनाते हुए कहते हैं: "एक घने शहर (अमृतसर) की तंग गली में पैदा हुए व्यक्ति के लिए उस विस्तार के प्रति ऐसी आत्मीयता का अनुभव होने का आधार क्या हो सकता था?
केवल विपरीत का आकर्षण?" नए संसार को जानने की यह ललक उन्हें मालाबार की लाल ज़मीन, घनी हरियाली और नारियल वृक्षों से लेकर कन्याकुमारी की चट्टान तक लिए जाती है.
बीच-बीच में अनेक दिलचस्प हमसफ़र चरित्रों से दो-चार करते हुए. इस यात्रा-वृत्तांत को हम एक कहानी की तरह पढ़ सकते हैं.
6. चीड़ों पर चांदनीः निर्मल वर्मा
हिंदी लेखकों को तब विदेश यात्राओं का बहुत सुयोग नहीं मिलता था. अज्ञेय के बाद निर्मल वर्मा इस मामले में बहुत भाग्यशाली रहे.
अज्ञेय ने जैसे विदेश यात्राओं के संस्मरण 'एक बूंद सहसा उछली' में लिखे, निर्मल वर्मा 'चीड़ों पर चांदनी' के साथ इस विधा में सामने आए.
हालांकि इस पुस्तक में एक संस्मरण उनके जन्मस्थल शिमला पर भी है. पहले-पहल यह कृति साल 1962 में छपी थी.
विदेश यात्रा निर्मल वर्मा के लिए महज़ पर्यटकों की सैर नहीं रही. वे जर्मनी जाते हैं तो नाटककार ब्रेख्त उनके साथ चलते दिखाई देते हैं.
यात्रा संस्मरण, निर्मल वर्मा, अज्ञेय
किताबों की दुकानों में यात्रा संस्मरण से जुड़ी पुस्तकों की मांग कहानी और उपन्यास पुस्तकों से अपेक्षाकृत कम होती है लेकिन साहित्यिक विकास यात्रा में इनकी अन्यतम ऐतिहासिक भूमिका होती है.
कोपनहेगन में दूसरे यूरोपीय देशों की मौजूदगी भी साथ रहती है. सबसे महत्त्वपूर्ण दो यात्रा-संस्मरण आइसलैंड के हैं.
आइसलैंड की हिमनदियों (ग्लेशियर) और क्षेत्र की साहित्यिक संस्कृति का आंखों देखा वर्णन हिंदी में इससे पहले शायद ही देखने में आया हो.
इन संस्मरणों के कई साल बाद निर्मलजी ने 'सुलगती टहनी' (कुंभ यात्रा) और डायरी की शक्ल में अनेक दूसरे यात्रा-संस्मरण भी लिखे. पर 'चीड़ों पर चांदनी' इस विधा में उनकी अनूठी कृति के रूप में हमेशा पहचानी जाती रही है.
7. स्पीति में बारिशः कृष्णनाथ
कृष्णनाथ अर्थशास्त्र के शिक्षक रहे और बौद्ध धर्म के अध्येता. मगर उनकी यायावर-वृत्ति उन्हें बार-बार हिमालय ले जाती रही है.
बौद्ध धर्म का अन्वेषण ही नहीं, हिमालयी अंचल के लोक-जीवन को उन्होंने बहुत आत्मीय और सरस ढंग से अपने अनेक संस्मरणों में लिखा है.
साल 1974 की यात्रा को कवि कमलेश साल 1982 में यात्रा-त्रयी के रूप में प्रकाश में लाए थे. श्रृंखला में सबसे पहली कृति थी- 'स्पीति में बारिश'. फिर 'किन्नर धर्मलोक' और 'लद्दाख़ में राग-विराग' छपी.
कुछ वर्ष बाद कुमाऊं क्षेत्र पर भी उनकी ऐसी ही तीन किताबों का सिलसिला देखने में आया. लाहौल-स्पीति, रोटांग (रोहतांग) जोत के पार हिमाचल प्रदेश का सीमांत क्षेत्र है. लोक-जीवन तो हर जगह अपना होता ही है, पर इस क्षेत्र के पहाड़ और घाटियां बाक़ी हिमालय से बहुत जुदा हैं.
कहते हैं, स्पीति में कभी बारिश नहीं होती. उस दुनिया में कृष्णनाथ बारिश ढूंढते हैं और पाते हैं, स्नेह की, ज्ञान की, परंपरा और संस्कृति की, मानवीय रिश्तों की बारिश.
कृष्णनाथ का गद्य अप्रतिम है. सरस और लयपूर्ण. छोटे-छोटे वाक्यों में वे अपने देखे को हमसे बांटते नहीं, हम पर अपने गद्य का जैसे जादू चलाते हैं. चंद पंक्तियां देखिएः
"विपाशा को देखता रहा. सुनता रहा. फिर जैसे सब देखना-सुनना सुन्न हो गया. भीतर-बाहर सिर्फ हिमवान, वेगवान, प्रवाह रह गया. न नाम, न रूप, न गंध, न स्पर्श, न रस, न शब्द. सिर्फ सुन्न. प्रवाह, अंदर-बाहर प्रवाह. यह विपाशा क्या अपने प्रवाह के लिए है? क्या इसीलिए गंगा, यमुना, सरस्वती, सोन, नर्मदा, वितस्ता, चंद्रभागा, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी की तरह विपाशा महानद है? पुण्यतमा है? क्या शीतल, नित्य गतिशील सिलसिले में ही ये पाश कटते हैं? विपाश होते हैं?"
8. यूरोप के स्केच: रामकुमार
रामकुमार की ख्याति एक चित्रकार के रूप में अंतरराष्ट्रीय है, लेकिन हिंदी में कथाकार के रूप में उनकी अपनी प्रतिष्ठा है.
साल 1950-51 में वे पेरिस के आर्ट स्कूल में रहे. उस वक़्त मौक़े-बेमौक़े वे यूरोप के देशों की सैर को निकलते रहे.
"नए-नए शहर, नई-नई भाषाएं, नए-नए लोग... और मैं अकेला निरुद्देश्य यात्री की भांति सुबह से शाम तक सड़कों, गलियों, कैफ़ों और कला-संग्रहालयों के चक्कर लगाया करता."
साल 1955 में वे फिर यूरोप गए. दोनों प्रवासों के कोई बीस यात्रा-संस्मरण इस पुस्तक में संकलित हैं.
पेशे से चित्रकार राम कुमार ने 1950-51 में अपनी यूरोप यात्रा के संस्मरण इस किताब में लिखे हैं. फोटो साभार: हिंदी बुक सेंटर, दिल्ली
क़ाहिरा की एक शाम, रोमा रोलां के घर में, फूचिक के देश में, टॉल्सटाय के घर में, दांते और माइकल एंजेलो का देश हर तरह से विशिष्ट यात्रा-वृत्तांत हैं.
कथाकार होने के बावजूद रामकुमार संस्मरण लिखते वक़्त तटस्थ रहते हैं और जानकारी और अनुभवों को किसी निबंध की तरह हमसे बांटते हैं. किताब में उनके बनाए रेखाचित्र पाठक के लिए एक अतिरिक्त उपलब्धि साबित होते हैं.
9. बुद्ध का कमण्डल लद्दाखः कृष्णा सोबती
कृष्णा सोबती अपनी अनूठी कलम लिए एक रोज़ दिल्ली से लेह को चल दीं. यह किताब उस यात्रा की डायरी समझिए.
इसका प्रकाशन इतना सुरुचिपूर्ण है कि हिंदी में शायद ही कोई और यात्रा-संस्मरण इस रूप में छपा होगा.
हर पन्ने पर रंगीन तस्वीरें, रेखांकन, वाक्यांश कृष्णाजी के गद्य की शोभा बढ़ाते हैं. वे अपनी पैनी और सहृदय नज़र से लेह के बाज़ार, महल, दुकानें, लोग, गुरुद्वारे, पुस्तकालय, प्रशासन, प्रकृति सबको निहारती चलती हैं.
सबसे ज्यादा उनकी नज़र टिकती है बौद्ध-विहारों के भव्य और कलापूर्ण एकांत पर. वे फियांग, हैमिस, लामायूरू, आलची, थिकसे के गोम्पा देखती चलती हैं.
जांसकर घाटी की परिक्रमा करती हैं और हमारे सम्मुख लद्दाख़ की संस्कृति, भाषा, लिपि, रीति-रिवाज, नदियों और दर्रों को हाथ की रेखाओं की तरह बड़ी आत्मीयता से परोसती चलती हैं.
करगिल को हमने भारत-पाक संघर्ष से पहचाना है. कृष्णा सोबती हमारे सामने उस करगिल का चेहरा ही बदल देती हैं.
10. तीरे तीरे नर्मदाः अमृतलाल वेगड़
सैलानी की यात्रा का तेवर अलग होता है और यात्री का अलग. अमृतलाल वेगड़ नर्मदा की विकट मगर सरस यात्राओं के लिए पहचाने गए हैं.
वे चित्रकार भी हैं और कला-शिक्षक भी. यात्रा के रेखांकनों-चित्रों से सुसज्जित उनकी यात्रा-त्रयी इस किताब के साथ पूर्णता पाती हैः सौंदर्य की नदी नर्मदा, अमृतस्य नर्मदा, तीरे-तीरे नर्मदा.
यात्राओं का यह सिलसिला वेगड़जी ने पत्नी कांताजी के साथ विवाह की पचासवीं सालगिरह के मौके पर शुरू किया था.
अंतराल में नर्मदा जैसे उन्हें फिर बुलाती रही और वे वृद्धावस्था में भी अपने सहयात्रियों के साथ निकल-निकल जाते रहे.
हम इन संस्मरणों में कदम-कदम पर नर्मदा के इर्द-गिर्द के लोकजीवन से दो-चार होते हैं. वेगड़जी के संस्मरणों में नदी नदी नहीं रहती, एक जीवंत शख्सियत बन जाती है जो हज़ारों-हज़ार वर्षों से अपने प्रवाह में जीवन को रूपायित और आलोकित करती आई है.
वेगड़जी का विनय देखिए, फिर भी कहते क्या हैं"कोई वादक बजाने से पहले देर तक अपने साज का सुर मिलाता है, उसी प्रकार इस जनम में तो हम नर्मदा परिक्रमा का सुर ही मिलाते रहे. परिक्रमा तो अगले जनम से करेंगे."
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अन्य पठनीय यात्रा-संस्मरणः राह बीती: यशपाल; सफ़रनामा पाकिस्तान: देवेंद्र सत्यार्थी; यात्रा-चक्र: धर्मवीर भारती; अपोलो का रथः श्रीकांत वर्मा; सफ़री झोले में: अजित कुमार; कश्मीर से कच्छ तक: मनोहरश्याम जोशी; एक लंबी छांहः रमेशचंद्र शाह; रंगों की गंधः गोविंद मिश्र; नए चीन में दस दिनः गिरधर राठी; यूरोप में अंतर्यात्राएं: कर्ण सिंह चौहान; अफ़ग़ानिस्तानः बुज़कशी का मैदानः नासिरा शर्मा; सम पर सूर्यास्तः प्रयाग शुक्ल; एक बार आयोवाः मंगलेश डबराल; अवाक: गगन गिल; चलते तो अच्छा थाः असग़र वजाहत; नीले बर्फीले स्वप्नलोक में: शेखर पाठक; कहानियां सुनाती यात्राएं: कुसुम खेमानी; वह भी कोई देश है महाराजः अनिल यादव; दर दर गंगेः अभय मिश्र/पंकज रामेंदु

सौ बरस, 10 श्रेष्ठ कविताएं


मुक्तिबोध ने अंधेरे में, ब्रह्मराक्षस, चांद का मुंह टेढ़ा है जैसी प्रसिद्ध कविताएं रचीं.
हिंदी साहित्य में पिछले सौ वर्षों में जो सैकड़ों कविताएं प्रकाशित हुई हैं उनमें से मैंने अपनी पसंद से ये दस श्रेष्ठ कविताएं चुनी हैं.
1. अंधेरे में – गजानन माधव मुक्तिबोध
आधुनिक हिंदी कविता में सन् 2013 एक ख़ास अहमियत रखता है क्योंकि इस वर्ष गजानन माधव मुक्तिबोध की लंबी कविता ‘अंधेरे में’ की अर्धशती शुरू हो रही है. सन् 1962-63 में लिखी गई और नवंबर 1964 की ‘कल्पना’ पत्रिका में प्रकाशित यह कविता इन 50 वर्षों में लगातार प्रासंगिक होती गई है और आज एक बड़ा काव्यात्मक दस्तावेज़ बन चुकी है.
समय बीतने के साथ वह अतीत की ओर नहीं गई, बल्कि भविष्य की ओर बढ़ती रही है. आठ खंडों में विभाजित इस कविता के विशाल कैनवस पर स्वाधीनता संघर्ष, उसके बाद देश की राजनीति और समाज और बुद्धिजीवी वर्ग में आई नैतिक गिरावट के बीहड़ बिंब हैं और यथास्थिति में परिवर्तन की गहरी तड़प है.
उसमें चित्रित शक्तिशाली वर्गों और बौद्धिक क्रीतदासों की शोभा-यात्रा का रूपक आज भी सच होता दिखता है. हिंदी के एक और अद्वितीय कवि शमशेर बहादुर सिंह ने लिखा था कि यह कविता ‘देश के आधुनिक जन-इतिहास का, स्वतंत्रता के पूर्व और पश्चात् का एक दहकता दस्तावेज़ है. इसमें अजब और अद्भुत रूप का जन का एकीकरण है.’
2. मेरा नया बचपन – सुभद्रा कुमारी चौहान
कई वर्ष पहले लिखी गई सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ’मेरा नया बचपन’ अपनी मार्मिकता और निश्छलता के लिए अविस्मरणीय है. यह कविता काफ़ी समय तक स्कूली पाठ्यक्रम में लगी रही और पुरानी पीढ़ी के बहुत से लोगों को आज भी कंठस्थ होगी.
’खूब लड़ी मरदानी वह तो झांसी वाली रानी थी’ जैसी ओजस्वी कविता लिखनेवाली सुभद्रा जी इस कविता में अनूठी कोमलता निर्मित करती हैं. अपने बीते हुए बचपन को याद करते हुए वो सहसा अपनी नन्ही बेटी को सामने पाती हैं और देखती हैं कि उनका बचपन एक नए रूप में लौट आया है.
एक बचपन की स्मृति और दूसरे बचपन के वर्तमान के संयोग से एक विलक्षण कविता उपजती है जो सरल और ग़ैर-संश्लिष्ट होने के बावजूद मर्म को छू जाती है. सीधे हृदय से निकली हुई ऐसी रचनाओं को भूलना कठिन है.
3. सरोज स्मृति – निराला

मंगलेश डबराल की पसंद

  • वोल्गा से गंगा – राहुल सांकृत्यायन
  • अनामिका – निराला
  • कुछ और कविताएं – शमशेर बहादुर सिंह
  • ठुमरी – फणीश्वरनाथ रेणु
  • एक साहित्यिक की डायरी – मुक्तिबोध
  • निराला की साहित्य साधना 1- रामविलास शर्मा
  • हंसो हंसो जल्दी हंसो – रघुवीर सहाय
  • आधा गांव – राही मासूम रज़ा
  • सपना नहीं – ज्ञानरंजन
  • संसद से सड़क तक - धूमिल
निराला की लंबी कविता ’सरोज स्मृति’ भी ऐसी ही रचना है जो अपने समय को लांघ कर आज भी समकालीन है. विश्व कविता में शोकगीत (एलेजी) को बहुत अहमियत दी जाती है और इस कसौटी पर निराला की यह कविता विश्व के सर्वश्रेष्ठ शोकगीतों में रखी जा सकती है.
इस कविता में निराला अपनी बेटी सरोज के बचपन के खलों, फिर विवाह और असमय मृत्यु की विडंबना-भरी कहानी कहते हैं, जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवाद पर तीखी चोट करते हैं और एक असहाय पिता के रूप में खुद को धिक्कार भेजते हैं:
’धन्ये, मैं पिता निरर्थक था/ तेरे हित कुछ कर न सका’
‘सरोज स्मृति’ संवेदना को विकल कर देने वाली कविता है और दो स्तरों पर पाठक के भीतर अपनी छाप छोड़ती है: पहले करुणा और ग्लानि के स्तर पर और फिर घटना के ब्यौरों और कथा कहने के स्तर पर. ’राम की शक्तिपूजा’ जैसी महाकाव्यात्मक विस्तार की रचना को निराला की प्रतिनिधि कविता माना जाता है, लेकिन ’सरोज स्मृति’ का महत्व यह भी है कि उसमें निराला अपने क्लासिकी सांचे को तोड़कर कविता को कथा के संसार में ले आते हैं.
4. टूटी हुई बिखरी हुई – शमशेर बहादुर सिंह
‘सरोज स्मृति’ की करुणा के बाद शमशेर बहादुर सिंह की ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ में प्रेम की करुणा दिखाई देती है, जो अपने विलक्षण बिंबों, अति-यथार्थवादी दृश्यों के कारण चर्चित हुई. यह प्रेम का प्रकाश-स्तंभ है. एक प्रेमी का विमर्श, उसका आत्मालाप और ख़ुद को मिटा देने की उत्कट इच्छा.
इस कविता में अंतर्निहित संगीत पाठक के भीतर एक उदास और खफीफ अनुगूंज छोड़ता रहता है. इस अनुगूंज को रघुवीर सहाय जैसे कवि ने अपनी एक टिप्पणी में सुंदर ढंग से व्याख्यायित किया था. कविता में प्रेम के बारे में जब भी कोई ज़िक्र होगा, ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ उसमें ज़रूर नज़र आएगी.
5. कलगी बाजरे की – अज्ञेय
खड़ी बोली की कविता का इतिहास अभी सौ वर्ष का भी नहीं है, लेकिन उसमें विभिन्न आंदोलनों के पड़ाव काफ़ी महत्वपूर्ण हैं. ऐसा ही एक प्रस्थान-बिंदु प्रयोगवाद या नयी कविता है, जिसकी घोषणा अज्ञेय की कविता ‘कलगी बाजरे की’ बखूबी करती है.
पुराने प्रतीकों-उपमानों को विदा करने और प्रेमिका के लिए ‘ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका’ की बजाय ‘दोलती कलगी छरहरे बाजरे की’ जैसा आधुनिक संबोधन देने के कारण इस कविता की काफी चर्चा हुई.कविता में छायावादी बिंबों से मुक्ति और नयी कल्पना को अभिव्यक्ति देनेवाली यह कविता ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है.
6. अकाल और उसके बाद – नागार्जुन
दोहा-छंद में लिखी जनकवि नागार्जुन की कविता ‘अकाल और उसके बाद’ अपने स्वभाव के अनुरूप नाविक के तीर की तरह है – दिखने में जितनी छोटी, अर्थ में उतनी ही सघन.
नागार्जुन भारतीय ग्राम जीवन के सबसे बड़े चितेरे हैं और ‘अकाल और उसके बाद’ में घर में रोते चूल्हे, उदास चक्की और अनाज के आने के चित्र हमारी सामुहिक स्मृति में हमेशा के लिए अंकित हो चुके हैं.

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने 'राम की शक्ति पूजा', 'कुकुरमुत्ता', 'सरोज स्मृति' जैसी महत्वपूर्ण काव्य रचनाएं कीं.
इस कविता को हम जब भी पढ़ते हैं, वह हमेशा ताज़ा लगती है. इस कविता की अंतर्निहित गतिमयता है जो उसे नया और प्रासंगिक बनाए रखती है. आधुनिक हिंदी कविता में सबसे लोकप्रिय पंक्तियां खोजी जाएं तो यही कविता सबसे पहले याद आएगी.
7. चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती – त्रिलोचन
प्रगतिशील परंपरा के एक और प्रमुख कवि त्रिलोचन की कविता ‘चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती’ भी एक अविस्मरणीय कविता है जिसकी कथा और संवेदना की कोमलता दोनों अभिभूत करती हैं. यह एक छोटी बच्ची चंपा और कवि का संवाद है.
कवि उसे अक्षर-ज्ञान के लिए प्रेरित करता है ताकि बड़ी होकर वह अपने परदेस गए पति को चिट्ठी लिख सके. लेकिन चंपा नाराज़ होती है और कहती है कि वह अपने पति को कभी परदेस यानी कलकत्ता नहीं जाने देगी और यह कि ‘कलकत्ते पर बजर गिरे’.
एक मार्मिक प्रसंग के माध्यम से इस कविता में खाने-कमाने की खोज में विस्थापन की विडंबना झलक उठती है और चंपा का इनकार स्त्री-चेतना के एक मज़बूत स्वर की तरह सुनाई देता है. कवि और चंपा का संवाद बचपन की मासूमियत लिए हुए है और कविता के परिवेश में लोक संवेदना घुली हुई दिखाई देती है.
8. रामदास – रघुवीर सहाय

नागार्जुन ने युगधारा, सतरंगे पंखोंवाली, प्यासी पथराई आंखें, तालाब की मछलियां जैसी कविताएं लिखीं.
रघुवीर सहाय की कविता ‘रामदास’ तक आते-आते दुनिया बहुत कठोर और स्याह हो जाती है. नागरिक जीवन के अप्रतिम कवि रघुवीर सहाय की यह कविता शहरी मध्यमवर्गीय जीवन में आती निर्ममता, संवेदनहीनता और चतुराई की चीरफाड़ करती है.
उसमें एक असहाय व्यक्ति की यंत्रणा है जिसे सब देखते-सुनते हैं, लेकिन उसे बचाने के लिए कोई नहीं आता. दुर्बल लोगों पर होनेवाले अत्याचारों पर रघुवीर सहाय की बहुत सी कविताएं हैं, लेकिन ‘रामदास’ हादसे की ख़बर को जिस वस्तुपरक और बेलौस ढंस से देती है, वह बेजोड़ है. छंद में लिखी होने के कारण यह और भी धारदार बन गई है.
9. बीस साल बाद – धूमिल
धूमिल की कविता ‘बीस साल बाद’ देश की आज़ादी के बीस वर्ष बीतने पर लिखी गई थी, लेकिन आज 66 वर्ष बाद भी वह पुरानी नहीं लगती तो इसकी वजह यह है कि
सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक दुर्घटना लिखी गई है’
जैसी उसकी पंक्तियां आज और भी सच हैं और यह सवाल आज भी सार्थक है कि
‘क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन धके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है?’

'रामदास' रघुवीर सहाय की प्रमुख रचना है जिसमें शहरी मध्यवर्ग की सच्चाई नज़र आती है.
धूमिल की यह कविता हमारे लोकतंत्र की एक गहरी आलोचना है, इसलिए वह उनकी दूसरी बहुचर्चित कविता ‘मोचीराम’ की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है.
10 मुक्तिप्रसंग – राजकमल चौधरी
राजकमल चौधरी की लंबी कविता ‘मुक्तिप्रसंग’ न सिर्फ़ इस अराजक कवि की उपलब्धि मानी जाती है, बल्कि लंबी कविताओं में भी एक विशिष्ट जगह रखती है. वह भी हमारी लोकतांत्रिक पद्धतियों की दास्तान कहती है जो जन-साधारण को ‘पेट के बल झुका देती हैं.’
यह मनुष्य को धीरे-धीरे अपाहिज, नपुंसक, राजभक्त, देशप्रेमी आदि बनाने वाली व्यवस्था के विरुद्ध एक अकेले व्यक्ति के एकालाप और चीत्कार की तरह है जिसे शारीरिक इच्छाओं के बीच एक यातनापूर्ण यात्रा के अंत में यह महसूस होता है कि मनुष्य की मुक्ति दैहिकता से बाहर निकलकर ही संभव है. ‘मुक्तिप्रसंग’ का शिल्प अपने रेटरिक और आवेश के कारण भी पाठकों को आकर्षित करता है.
ये ऐसी रचनाएं हैं जो हिंदी कविता की लगभग एक सदी के इस सिरे से देखने पर सहज ही याद आती हैं और यह भी याद आता है कि इनके रचनाकार अब इस संसार में नहीं हैं. लेकिन उनके बाहर और अगली पीढ़ियों के भी अनेक कवि हैं, जिनकी रचनाएं अपने कथ्य और शिल्प में विलक्षण हैं.

केदारनाथ अग्रवाल, विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा, कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह की कई कविताएं, विष्णु खरे की ‘लालटेन जलाना’ और ‘अपने आप’, लीलाधर जगूड़ी की ‘अंतर्देशीय’ और ‘बलदेव खटिक’, चंद्रकांत देवताले की ‘औरत’, विनोद कुमार शुक्ल की ‘दूर से अपना घर देखना चाहिए’ और ‘हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था’, ऋतुराज की ‘एक बूढ़ा आदमी’, आलोक धन्वा की ‘जनता का आदमी’ और ‘सफ़ेद रात’ और असद ज़ैदी की ‘बहनें’ और ‘समान की तलाश’ जैसी अनेक कविताएं अनुभव के विभिन्न आयामों को मार्मिक ढंग से व्यक्त करने के कारण याद रहती हैं और समय बीतने के साथ वे हिंदी की सामूहिक स्मृति में बस जाएंगी.